हास्य व्यंग्य । छत्तीसगढ़ प्रसार । मुंगेली निवासी और पत्रकार अरविंद बंजारा ने सोचा कि क्यों न RTI के जरिये सरकारी पारदर्शिता का चेहरा देखा जाए। प्रश्न भी कोई कठिन नहीं, बल्कि सीधा–सपाट — आदिमजाति एवं अनुसूचित जाति विकास विभाग से जानकारी मांगी।
RTI अधिनियम कहता है — 30 दिन के भीतर जानकारी दें — लेकिन यहां तो हाल कुछ ऐसा हो गया जैसे राम के वनवास का समय बढ़ा दिया गया हो। 30 दिन बीत गए, मगर जवाब का नामोनिशान नहीं।
अब सोचिए, अगर रामायण में भी ऐसा होता कि हनुमान जी संजीवनी लाने जाते और लंका में अधिकारी कहते — अभी साहब मीटिंग में हैं, कल आइए — तो लक्ष्मण आज तक बेहोश पड़े रहते।
पहले मोर्चे से जब कोई उत्तर नहीं मिला, तो अरविंद ने अर्जुन की तरह दूसरा तीर निकाला और प्रथम अपील दायर कर दी — सीधे आयुक्त, अपीलीय अधिकारी, आदिमजाति एवं अनुसूचित जाति विकास विभाग, नया रायपुर को डाक से पत्र भेजा। उम्मीद थी कि अब तो ‘संजय’ की तरह सब कुछ जानकारी मिलेगा।
लेकिन यहां भी महाभारत के कुरुक्षेत्र का ही दृश्य था — पासे चलते रहे, मीटिंग होती रही, समय बीतता रहा और जवाब… वह शायद ‘कौरव सभा’ में अटका रहा।
एक महीना और बीत गया। जवाब का इंतजार करते-करते ऐसा लगने लगा जैसे भीम द्रौपदी के अपमान का बदला लेने के लिए 13 साल का वनवास काट रहे हों।
अब असली साहसिक यात्रा शुरू होती है —
आवेदक ने ठान लिया कि अपीलीय अधिकारी का मोबाइल नंबर ढूंढेंगे। खोज अभियान शुरू हुआ — मानो संजीवनी बूटी की तलाश हो।
सबसे पहले मुंगेली के आदिमजाति एवं अनुसूचित जाति विकास विभाग के कार्यालय पहुंचे। सोचा, यहां तो सीधा-सीधा पूछ लेंगे, लेकिन कक्ष के बाहर ही ‘अदृश्य लक्ष्मण रेखा’ थी — अनुमति के बाद अंदर गया साहब को नमस्कार किया, और पूछा तो जवाब मिला — कौन वहां अपीलीय अधिकारी है पता नहीं , नंबर नहीं दिया गया।
अरे भाई, ये कैसा प्रशासनिक धर्म है? महाभारत में तो दुर्योधन ने भी युद्ध के मैदान में अर्जुन का रथ रोककर संवाद किया था, लेकिन यहां नंबर तक रोक लिया गया।
खैर, हार मानने वाले तो पांडव भी नहीं थे, फिर भला अरविंद कैसे हारते?
बहुत खोजबीन,सहित थोड़ी पत्रकारिता, इधर-उधर पूछताछ और छोटे-बड़े सूचना स्रोतों की टोह के बाद आखिरकार नंबर मिल ही गया। वो पल कुछ वैसा था जैसे भीम ने दुर्योधन की जांघ का राज देख लिया हो या अर्जुन ने जयद्रथ का रास्ता पा लिया हो।
अब बारी थी संवाद की। फोन मिलाया गया, घंटी बजी, और उधर से आवाज आई —
साहब अभी मीटिंग में हैं, बाद में कॉल कीजिए।
ये सुनते ही लगा जैसे विभीषण ने रावण को समझाने की कोशिश की हो और रावण ने कहा हो — अभी दरबार में हूं, कल आना।
बाद में फिर फोन मिलाया गया, लेकिन इस बार तो महाभारत का ‘चक्रीय व्यूह’ पूरी तरह सक्रिय था — न फोन उठाया गया, न कोई संदेश वापस आया।
स्थिति ये हो गई कि अर्जुन की तरह चक्रव्यूह में घुस तो गए, लेकिन अभिमन्यु की तरह बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं मिला।
अब स्थिति यह हो गई थी कि यह कोई साधारण आवेदन यात्रा नहीं रही, बल्कि अश्वमेध यज्ञ जैसा युद्ध बन चुका था — घोड़ा (RTI) छोड़ दिया गया है, लेकिन जहां-जहां गुजरता है, वहां ब्यूरोक्रेसी की सेनाएं उसे रोकने के लिए खड़ी हैं।
फोन से कोई जवाब नहीं, डाक से कोई पत्र नहीं, ईमेल मानो वनवास पर चला गया।
अब अगला कदम?
कानून कहता है — अगर प्रथम अपील पर भी जवाब न मिले तो द्वितीय अपील या शिकायत राज्य सूचना आयोग में की जा सकती है।
यानी अब महाभारत का अंतिम युद्ध — सीधे सूचना आयोग कुरुक्षेत्र में।
लेकिन यह कुरुक्षेत्र भी आसान नहीं — यहां प्रवेश पाने के लिए अर्जुन जैसा धैर्य, भीम जैसा जज्बा और विदुर जैसा संयम चाहिए।
फॉर्म भरना होगा, प्रमाण संलग्न करने होंगे, और फिर… इंतजार करना होगा — ऐसा इंतजार जैसे भीष्म पितामह बाणों की शैया पर सूर्य के उत्तरायण होने का।
अगर सूचना आयोग से आदेश आया और विभाग फिर भी टाल-मटोल करे, तो अब कृष्ण नीति अपनानी होगी —
मीडिया में खुलासा, सोशल मीडिया पर वायरल गाथा और जनसमर्थन जुटाकर उस खामोश व्यवस्था को बोलने पर मजबूर करना।
और अगर तब भी जवाब न आया, तो यह लड़ाई सीधे न्यायालय की चौखट पर जाएगी —
जहां हनुमान की तरह RTI की गदा लेकर कहा जाएगा —
प्रभु, यह लंका सोने की है, पर दरवाजे बंद हैं — अब आग लगानी पड़ेगी।
कहानी का सार RTI का यह सफर साधारण नहीं, बल्कि रामायण के वनवास और महाभारत के कुरुक्षेत्र का मिला-जुला महायुद्ध है।
जहां आम नागरिक को अर्जुन की तरह धनुष-बाण (कानूनी ज्ञान) चलाना पड़ता है, और कृष्ण की तरह रणनीति (मीडिया और जनता का साथ) अपनानी पड़ती है।
जीत देर से मिलेगी, पर मिलेगी जरूर —
क्योंकि इतिहास गवाह है, चाहे रावण कितना भी शक्तिशाली हो या कौरव कितने भी हों,
सत्य और धैर्य की सेना के आगे उनकी पराजय निश्चित है।
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